वो भी क्या वक्त था
मौसम की तब्दीली कहिये या पतझड़ का बहाना था
पेड़ को तो बस शूखे पत्तों से छुटकारा पाना था
तेरी सूरत पढ़ कर मुझको सोच लिया करते थे लोग
वो भी था एक वक्त कभी ऐसा भी एक जमाना था
रेशा रेशा होकर अब बिखरी हैं मेरे आँगन में
रिश्तों की वो चादर जिसका वो ताना मैं बना था
उन गलियों में अब बेगानेपन के डेरे हैं
0 comments:
Post a Comment